Wednesday, July 29

तब तक, दुनिया बुरी है, मै भला हूँ|

ये भ्रम सब ने पाला है
इस झूठ को सच मान डाला है
की दुनिया बुरी है
मै भला हूँ |

ये शब्दों की व्यथा भी देखे
सच और झूठ एक ही पंक्ति में
देखना तो बस नजरिया है
दुनिया बुरी है
मै भला हूँ |

रावण ने सीता हरण किया, अंहकार
राम ने वध किया, महिमा अपरम्पार
हरण या हत्या?
दुनिया बुरी है
मै भला हूँ|

कौरवो का राज, पाप
पांडवो का कपट, साफ़
द्रौपदी पे दांव, या उस दांव का मान?
दुनिया बुरी है
मै भला हूँ|

प्रतिदिन इस जीवन में
भावुकता देती हमारे मन को सींच
तर्क वितर्क तिरस्कार अलंकार
प्रेम घृणा को करते भींच
चल देते राह पे ये कहके,
दुनिया बुरी है,
मै भला हूँ|

न जाने कितनो का ह्रदय तोडे
कितनो का किया अपमान
सोचा नहीं, निशा और किरण का सम्बन्ध
मेघा और वर्षा में अंतर
बस, दुनिया बुरी है
मै भला हूँ|

झूठ ही सच है, और सच भी झूठ
जाने ये हम कब मानेंगे
की, हालात पहलु है, और हम नज़रिया
तब तक, दुनिया बुरी है
मै भला हूँ|

--राजीव रं. की रचना


Sunday, July 5

A Random Post...( A dozen thing to do in my tweenhood)

There are few things, which I want to do in my tweens...


1. Clear UPSC
2. Get a law Degree. Not practice, though! Save it for, later.
3. Open a Company, run it successfully
4. Go to Ladakh...on a bike trip...and also to Sikkim!
5. Own a TATA Safari, of mine. And a Honda City, just, to prove someone right!
6. Learn to play guitar.
7. Learn to Dance.
8. Gain weight! I am 5' 9.5 and weigh around (read it, as below) 62kg.
9. Send my parents to an world trip, on my expense.
10. Become PM of India, atleast, a minister, if not, an MP, atleast. Either way, get actively in Politics
11. Write a novel, which I have been wanting to do, since last 6years.
12. Own a house.

(This is an addition, after the blog had been originally published...I remembered...and thought...How could I miss it, even.
That is: Join some theatre/drama group. Not necessarily on proffessional level. But do it for Self-Satisfaction)
Not necessarily, in the same order.

Now, I tag all, who are reading this to take the challenge, and tell us a dozen things they would like to do, in their tweens, teens, thirty-eens(!), ...and so on...lol...

Wednesday, July 1

बेवफाई तेरी मार गयी.....

दोस्तों, काफी दिनों से रंजित और मंदिरा की कहानी 'काला गुलाब' ख़त्म करना चाहता हूँ, मस्तिष्क में वो कहानी, वो अंत समोवेश है, परन्तु ना जाने क्यों उसे लिख नहीं पा रहा | अब तो मुझे लगता है उसे लिखने का कोई तुक भी नहीं, क्यूंकि, द्वितीय अंक में भी उसका समापन शोभित है | मेरे दिमाग में जो समापन अंक संयोजित है, वो कईयों को शायद न लुभाए! उसका अंत जो मैंने सोच रखा है, उसमे खुशहाल अंत नहीं है! उसमे जुदाई है, दर्द है, रक्त है, मौत है! और मोरादाबादी साहब की वो पंक्तिया तो सुनी ही होगी अपने, "तारुफ़ रोग बन जाए, तो उसे भूलना बेहतर| तालुक बोझ बन जाये, तो उसका तोड़ना अच्छा"| लेकिन एक नए कहानी का वादा दिए जाता हूँ, एक नए परिचय का एहसास छोडे जाता हूँ, इन कुछपंक्तियों के माध्यम से, जो बरसात की इस अकेले तनहा रात की, मेरे और मेरे तन्हाई की गवाह थी....हमसफ़र, हमनवा थी .....

अपनी टिपण्णी देना न भूले.... उम्मीद में, आप सब का....



कमोबेश तेरी चाह मुझे मार गयी
बची थी जो सांस, आह उसे मार गयी
उतावला होके करता रहा बेसब्र इन्तजार
वो इन्तजार मुझे मार गयी
जलाये रखा था चराग तेरे लिए
वो रौशनी, वो चराग मुझे मार गयी
तूफ़ान में भी कांपता, ठहरा रहा मै
तेरे ना आने से, वो कंपन मार गयी
इन्तजार बेहद ही बेआबरू हुई
वो दर्द, वो जिल्लत मुझे मार गयी
अब बस न करेंगे तेरा एतबार
ये ख्याल, ये अंजाम मुझे मार गयी
मेरे जाने से, कुछ और तो न हुआ
लेकिन, जिंदगी, मुहब्बत तू हार गयी
ये बेदर्द, बेरहम, अंजाम तेरा
कमोबेश मुझे फिर से मार गयी ||

- राजीव रंजन 'राज'







आप सोच रहे होंगे, की आज हिंदी का राह में मैं कैसे चल पड़ा ....बहुत कशमोकश वाली बात नहीं है, हिंदी का मैं शुरू से प्रयोग करता आया हु, अपने ऑरकुट पृष्ट पर भी मैंने हिंदी को काफी जोर से भींचा हुआ है| हिंदी से प्रेम प्रसंग मेरा काफी पुराना है, अपने विद्यालय जीवन में भी काफी काव्य, कहानिया हिंदी में लिखी थी| बस आज मन किया, की उन सब जगह पे जाऊ जो की कभी मेरा था, जहा पर मै कभी था, जहा एक गर्व था, एक सफलता की मुस्कान थी, जहा संघर्ष में भी आंसू ना थे, गोया मन चाहा अपने गाँव में, मैंने जहा महीने दो महीने, बचपन में पढ़ा था, उस विद्यालय में उस बरगद के पेड़ के नीचे जाऊ, अपना बोरा बिछाऊ, और बस्ता लेके बैठ जाऊ, प्यास लगे तो बगल में कुँए में रस्सी डालु, और बाल्टी से वो शीतल जल अपने ऊपर उडेल लूं | वो बरगद, वो नीम के पेड़, वो चापाकल का पानी, वो गोबर की गोएथा पे बनी लिट्टी की सोंध खुसबू जिसको देसी घी में डुबोया गया हो | आह! प्रतीत होता है वो सदी कही और छुट गयी! ये जमाना बदल गया, वो ग्राम पंचायत बजहिंया भी बदल गया | खैर बदलते वक़्त के साथ, बदलना ही चतुरता है ......

"बाँध के रखो इन ख्यालो को....कम्बखत आसमां तक उडान भरते है "




मशहूर कवी, उपेन्द्र कुमार के इन तपिश भरे शब्दों के साथ, मेरा नमस्कार.....
बेअसर हो तो फिर दुआ क्या है
चल के रुक जाये तो हवा क्या है

लोग हंसते हुए झिझकते हैं
ये इन्हें रोग सा लगा क्या है

ग़म हैं, मजबूरियां हैं, किस्मत में
फिर ये कोशिश, ये हौसला क्या है