Sunday, March 4

बेख्याली के कुछ क्षण

यादों को संभालना कैसा होता होगा,
जबकि मेरे पास तुम्हारी कोई निशानी नहीं....
कुछ पल है खट्टे मिट्ठे से, आधे कच्चे से...
कुछ बुरे और कुछ अच्छे से ....
लेकिन निशानी के तौर पे कुछ नहीं�!!!

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एक शाम है रौशनी वाली,
एक दिन है पसीने से लथपथ
एक मुस्कान तुम्हारी बंद है मेरे आँखों में
कुछ अधूरे से सपने है साखों में...
लेकिन निशानी के तौर पे कुछ नहीं!

 


सुरीली और धमकी वाली आवाज़
बंद है जेहेन में कही....वहाँ से भी हुक्म चलाती है...
वो पहली बार की, मेरे रोएँ की सिरहन साथ है
फोन पे वो बितायी पहली पूरी रात है!
लेकिन निशानी के तौर पे तो कुछ भी नहीं!!